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Thursday, 26 December 2013

इक दास्ताँ मेरी भी सुन लो।

बड़ा आसां होता ये इश्क़ अगर
ये दूरियां ना होती,
समंदर सी फैल जाती बाहें यह हमारी
 और इसमें लिपटे होते तुम । 
क्यों रोक दिया इन कदमो को  तुमने?
 
जो लगती थीं मुस्किलें
क्या पता था कि हमसफ़र बन जायेँगी। 
जिनके बगैर जीना था मुस्किल
क्या पता था कि बस उनकी यादें ही रह जाएँगी?
क्यों छोर दिया इन यादों के भरोसे?
 
सम्भाले रखूँगा इन यादों को मै,
पर उम्मीद का दमन छोरना सिखा नहीं है हमने। 
कुछ ख्वाब तोह पुरे हो ही जाते,
तुम्हारे मिलने से। 
तुम न रहे, यादें रह गयी तुम्हारी। 
 
मेरे आखों में अगर आसूं न दिखे
तो ये न समझ लेना कि एकतरफा था इश्क़ तुम्हारा। 
मेरे नए रूप से अफ़सोस न करना,
ये तो परछाई है तुम्हारी। 
 
 

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